इस जुए में दाँव पर स्वयं हम हैं

रसांतर

सारे विश्व की धराशायी हुए जाती अर्थव्यवस्था पर और सबसे बढ़ कर उसके भारतीयों के जीवन क्रम पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर लिखे इस लेख में वित्तीय समस्याओं से दो-चार होते समाज ही की नहीं अपितु उस सामाजिक चक्र की चाल से बदलते सामाजिक मूल्यों की भी मीमांसा की गयी है| कैसे अर्थव्यवस्था सामाजिक मूल्यों की चाल को प्रभावित करती छीजती चलती है - इसे जानने के लिए आप यह आलेख अवश्य पढ़ें
. वा.


संपत्ति का मूल्य
- राजकिशोर

दीपावली की रात को जुआ खेलने का महत्व है। कब और क्यों, जुए को हिन्दुओं के सबसे बड़े त्यौहार दीपावली का अंग बना दिया गया, पता नहीं। शायद इस तथ्य को सामाजिक रूप से आत्मसात कराने के लिए कि धन-संपत्ति आनी-जानी चीज है या जिंदगी एक जुआ भी है। जिंदगी एक जुआ है या कहिए महज एक संयोग है, यह बात बहुत शुरू में ही मेरी समझ में आ गई थी। लेकिन हाल ही में मेरी समझ में यह बात आई कि मेरे पास जो धन-संपत्ति है, वह भी जुआ है या उसका मूल्य मेरे अधीन नहीं है। और तभी से मैं भीतर ही भीतर काँप रहा हूँ .

इसका पहला एहसास तब हुआ जब मेरे फ्लैट की कीमत अचानक कई गुना बढ़ गई। पूर्वी दिल्ली के एक साधारण-से इलाके में यह फ्लैट मैंने 1996 में सवा छह लाख रुपए में खरीदा था। संपत्ति बनाने की इच्छा मेरे मन में कभी नहीं रही। लेकिन जब नवभारत टाइम्स ने छह साल की नौकरी के बाद अचानक मुझे विदा कर दिया और उसके साथ ही मकान किराया भत्ता जाता रहा, तो समस्या हुई कि कहाँ रहा जाए। तब मैं अपने छोटे-से जीवन में नौवीं बार किराए का घर खोजने के लिए निकल पड़ा। तब तक दिल्ली में किराए इतने बढ़ गए थे कि किसी साधारण आदमी के लिए किराए पर घर लेना असंभव हो चुका था। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो गया कि सब कहीं से कर्ज ले कर एक छोटे-से फ्लैट को अपना बनाया जाए। उस विकट स्थिति में कई मित्रों का उदार सहयोग आजीवन अविस्मरणीय रहेगा।

इससे भी ज्यादा मजेदार बात यह हुई कि वही फ्लैट कुछ ही वर्षों में चौदह-पंद्रह लाख का हो गया। यह मेरे लिए एक आँख खोल देने वाली विस्मयकारी घटना थी। यानी उस फ्लैट में रहते हुए भी मैं सात या आठ लाख रुपए कमा चुका था। इस कमाई के लिए मैंने कुछ भी नहीं किया था। दूसरी ओर, लगभग तीस साल तक नौकरी करने के बाद भी मेरी कुल बचत मुश्किल से तीन लाख रुपए थी। मैंने बहुत ही तकलीफ के साथ यह महसूस किया कि मेरी योग्यता (वह जैसी और जितनी भी हो) तथा बाजार को स्वीकार्य श्रम करने की क्षमता की तुलना में यह बात ज्यादा कीमती थी कि मैं एक ऐसे शहर में और एक ऐसे इलाके में रह रहा था, जहां संपत्ति का मूल्य इतनी तेजी से बढ़ता है।

आज बताते हैं कि उस फ्लैट का मूल्य पचास लाख के आसपास है। यानी बिना कुछ करे-धरे मैं पचास लाख रुपए का स्वामी हो चुका हूँसंपत्ति का मूल्य इसी गति से बढ़ता रहा, तो अनुमान किया जा सकता है कि दस साल बाद मैं करोड़पति हो जाऊँगा। क्या विडंबना है ! क्या मजाक है! बाजार नामक अदृश्य शक्ति मेरे पास जो है, उसकी कीमत तय कर रही है और उस मामले में मुझे पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है। ऐसे समाज में जीने का औचित्य क्या है जहाँ आपके रहने के घर तक की कीमत भी दूसरे ही लगा रहे हों ?

मामला सिर्फ कीमत के बढ़ने का नहीं है। कम होने का भी है। जब पंजाब में आतंकवाद का बोलबाला था, तब वहाँ संपत्ति का मूल्य बहुत अधिक गिर गया था। कल अगर दिल्ली में भी आतंकवाद फैल जाए या किसी और वजह से यहाँ जीना असुरक्षित हो जाए, तो यहाँ भी संपत्ति का मूल्य गिरता जाएगा। उसके लिए भी मैं स्वयं कहीं से भी जिम्मेदार नहीं होऊँगा। पर मैं गरीब जरूर हो जाऊँगा

हाल ही में मेरे एक सहकर्मी (जाहिर है, कहीं पढ़ कर या टीवी से सुन कर ) बता रहे थे कि शेयर बाजार के गिरने से अनिल अंबानी की कुल संपत्ति का मूल्य गिर कर इतने अरब रुपए से इतने अरब रुपए ही रह गए हैं। इसी तरह, जिन लोगों की भी पूँजी शेयरों में लगी हुई थी, वे सब कुछ ही दिनों में पहले से कम अमीर हो गए हैं। क्या इसीलिए कहा गया है कि धन-संपत्ति माया है? माया शायद इसलिए कहा गया था कि उससे लगाव एक मरीचिका है। वह स्थायी नहीं है। आती-जाती रहेगी। या, वह जो भी है, तुम्हारी नहीं है। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी है -- उसे बचाओ। बाकी चीजें बाहरी हैं और उन पर तुम्हारा ध्यान जमा रहा तो जो वास्तव में तुम्हारा है, उसकी रक्षा तुम नहीं कर सकोगे। आज आत्मा को चरित्र या व्यक्तित्व कहा जा सकता है।

लेकिन हम जिस तरह की व्यवस्था में और जिस समय में रह रहे हैं, उसमें सचमुच ऐसा लगता है कि कोई भी भौतिक चीज हमारे कब्जे में नहीं छोड़ी गई है। पूँजीवाद के आने के पहले जिंदगी में ऐसी अस्थिरता सिर्फ उन्हीं इलाकों में थी जो राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, सूखा, बाढ़ आदि से पीड़ित रहा करते थे। बाकी इलाकों में धन-संपत्ति का मूल्य स्थिर था। सोने का मूल्य सैकड़ों वर्षों तक स्थिर रहा करता था। इसलिए तब अपनी बचत को सोने में ढाल कर भविष्य के प्रति निश्चिंत रहा जा सकता था। आज सोना भी सोना नहीं है। कभी उसकी कीमत तेजी से चढ़ने लगती है तो कभी तेजी से लुढ़कने लगती है। बेशक सोने की कीमत शेयरों की तुलना में अपेक्षाकृत स्थिर रहती है। लेकिन अमेरिका जैसे देश में अगर कोई अधेड़ आदमी अपनी बचत सोने में लगा कर रखता है, तो उसे मूर्ख माना जाएगा। सोना पेंशन नहीं दे सकता। शेयरों में लगा हुआ पैसा मासिक पेंशन का इंतजाम कर सकता है। पर शेयर खुद लुढ़कने लगे, तब ? आज अमेरिका के लाखों परिवारों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई है, तो इसका कारण यह है कि वहाँ भयानक मंदी छाई हुई है। मनमोहन सिंह कहते हैं कि उस मंदी का असर हम पर भी पड़ रहा है। यानी अमेरिका के कुछ मनचले बैंकरों की बेवकूफियों ने भारत के लाखों लोगों की कुल संपत्ति की कीमत गिरा दी है और इनमें अनिल अंबानी जैसे उद्योगपति भी हैं।

इस अनिश्चितता का कोई इलाज होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मुझे शेयर बाजार के धराशायी होने से कोई तकलीफ नहीं है। जब शेयरों के भाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे थे, तब जो लोग अनाप-शनाप कमाई कर रहे थे, वे ही आज संकट में हैं। जिन्होंने दिन देखा है, उन्हें रात भी देखनी चाहिए -- यह प्राकृतिक न्याय है। लेकिन उनसे जरूर गहरी सहानुभूति है जो इस प्राकृतिक न्याय की चक्की में पिस कर अचानक कंगाल हो गए हैं या अपने को आत्महत्या करने के लिए विवश पा रहे हैं। पूँजीवादी विचारक कहते हैं, यह असुरक्षा लाइलाज है। असमर्थ लोगों को बचे रहने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन धरती पर अनिल अंबानी या रतन टाटा जैसे समर्थ लोगों की संख्या कितनी है? बाकी लोगों के लिए एक ही विकल्प बचा है कि वे ऐसी अर्शनीतियों का जी-जान से विरोध करें जो हमारे जिंदा रहने के साधनों के मूल्य में अनिश्चितता लाती हैं और ऐसी अर्थनीतियों के पक्ष में काम करें जिनसे जीवन में कुछ निश्चितता, स्थिरता और सुरक्षा आती हो। जीवन होगा मूलत: जुआ, पर हमारा घर, हमारी कमाई, हमारा पेंशन -- सब कुछ जुए पर लगा हुआ हो और यह जुआ हम नहीं, ऐसे लोग खेल रहे हों, जिनका हमारे हिताहित से कोई संबंध नहीं है, यह बात पूरी तरह से समाज और मानव विरोधी है और इसे एक दिन के लिए भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

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(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं।)

1 टिप्पणी:

  1. पूंजी के युग में मूल्य बाजार तय करता है, उस में लगा श्रम नहीं। यहाँ उपयोगिता की भी बड़ी भूमिका नहीं है। आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन कभी आवश्यकता से कई गुना अधिक होने लगता है तो कभी कई गुना कम। यह व्यवस्था अमानवीय है। जब मनुष्य प्रकृति की शक्तियों पर नियंत्रण कर सकता है तो इस पर भी नियंत्रण कर इसे मानवीय बना सकता है।

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